
सूत जी बोले…’, इटावा में बवाल लेकिन सनातन में रहे हैं कई गैर ब्राह्मण कथावाचक!

अगर आपने कभी सत्यनारायण कथा सुनी होगी तो ध्यान दिया होगा कि पूजन कराने आए पंडित जी अक्सर बोलते हैं ‘सूत उवाच’, यानी कि सूत जी ने कहा- ऐसा कहकर वह कथा सुनाना शुरू करते हैं. दरअसल हम-आप सभी लोग आज जो सत्यनारायण कथा सुन रहे हैं, वह कभी ‘सूत जी’ ने सुनाई थी. इसी सत्यनारायण कथा में यह भी पता चलता है कि यह कथा स्कंद पुराण के रेवा खंड में दर्ज है.
उत्तर प्रदेश के इटावा जिले का एक मामला आजकल चर्चा में है. खबर है कि यहां एक कथावाचक के साथ मारपीट की गई है. कथावाचक का आरोप है कि वह भागवत कथा कहने आए थे, लेकिन कुछ लोगों ने इसका विरोध किया, जाति पूछी और यादव होने पर मारपीट की. घटना का एक वीडियो भी वायरल है, जिसमें कथावाचक का सिर मुड़वाकर महिला का पैर छूकर नाक रगड़वाया जा रहा है. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस घटना पर कड़ी आपत्ति जताई है.
हालांकि इस घटना में लगाए गए आरोपों, घटनाक्रम के पीछे की वजह आदि जांच का विषय है, लेकिन पुराणों में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें ऐसे कथावाचकों का जिक्र है, जो ब्राह्मण नहीं हैं. वह मूल रूप में वेदपाठी नहीं हैं, लेकिन उन्हें वेदों सहित पुराण कथाओं का ऐसा ज्ञान था कि बड़े-बड़े ब्राह्मण भी उनसे पुराण कथाओं को सुनने में अपना सौभाग्य समझते थे.
सत्यनारायण कथा में आता है सूतजी का जिक्र
अगर आपने कभी सत्यनारायण कथा सुनी होगी तो ध्यान दिया होगा कि पूजन कराने आए पंडित जी अक्सर बोलते हैं ‘सूत उवाच’, यानी कि सूत जी ने कहा- ऐसा कहकर वह कथा सुनाना शुरू करते हैं. दरअसल हम-आप सभी लोग आज जो सत्यनारायण कथा सुन रहे हैं, वह कभी ‘सूत जी’ ने सुनाई थी. इसी सत्यनारायण कथा में यह भी पता चलता है कि यह कथा स्कंद पुराण के रेवा खंड में दर्ज है.
सूत जी ने सिर्फ सत्यनारायण कथा ही नहीं, बल्कि पूरा स्कंदपुराण ही सुनाया था, और सिर्फ स्कंद पुराण ही क्यों उन्होंने 18 महापुराणों में 10 पुराणों की कथा कही है. इसलिए आप बहुत से पुराणों में देखेंगे तो शुरुआत यहीं से मिलेगी. सूत उवाच… असल में सूत एक जाति है, जो प्राचीन जाति व्यवस्था के अंतर्गत वर्ण संकर जाति में आति है. वर्ण संकर जाति का अर्थ हुआ दो जाति के लोगों के मिलन से पैदा हुई संतान.
लोमहर्षण जी को कहा जाता है सूत जी
असल में सूत जी का असली नाम लोमहर्षण जी था. वह क्षत्रिय-ब्राह्मण माता पिता की संतान थे. इसलिए पूर्ण ब्राह्मण नहीं थे. उनके जन्म के बारे में एक मत यह भी प्रचलित है कि वह यज्ञ कि ज्योति से जन्मे थे. एक बार यज्ञ के दौरान इंद्र को दी जाने वाली हविष्य में बृहस्पति को समर्पित करने वाली हवि भी मिल गई और इस तरह दो मंत्रों के संयोग से जो ज्योति उत्पन्न हुई, वह लोमहर्षण जी कहलाए. उनका जन्म इंद्र (क्षत्रिय) और बृहस्पति (ब्राह्मण) गुणों के मेल से हुआ इसलिए वह सूत कहलाए.
लोमहर्षण जी को व्यास ऋषि ने शिष्य के रूप में स्वीकार किया और अपने लिखे पुराणों के संपूर्ण ज्ञान से परिपूर्ण कर दिया. असल में जब महर्षि वेदव्यास ने महापुराणों की रचना की तो वह इसलिए परेशान हुए कि उनके कई शिष्य थे, लेकिन किसी को भी सभी 18 पुराण पूरी तरह याद नहीं थे. इसी चिंता के बीच सूत जी यानी लोमहर्षण जी उनके पास विद्या ग्रहण करने के लिए पहुंचे. आज ये माना जाता है कि सूत कुल के व्यक्ति को वेदाभ्यास का अधिकार नहीं था, ये बिलकुल गलत है, क्योंकि महर्षि वेदव्यास ने लोमहर्षण जी को न सिर्फ अपना शिष्य बनाया था, बल्कि उन्हें वेदों के साथ ही पुराणों का भी ज्ञान दिया था.
12 वर्षों तक चलने वाली कथासत्र का किया था आयोजन
लोमहर्षण जी की कथा कहने की शैली इतनी रोचक थी कि सुनने वालों का रोम-रोम हर्षित हो जाता था, इसलिए उनका नाम लोमहर्षण से रोमहर्षण हो गया था. सूत कुल में जन्म लेने के कारण उन्हें सौतिभूषण भी कहा जाता है, इसलिए पुराण कथाओं में हर जगह उन्हें सूतजी नाम से ही संबोधित किया गया है. यह संबोधन इस बात की खुली घोषणा की तरह है कि पुराण कथा, भागवत कथा, राम कथा कहने-सुनने में जाति बंधन बिल्कुल भी नहीं है. खुद देवर्षि नारद भी सूत जी को व्यास पीठ पर बैठे देखते हैं तो प्रणाम करते हैं और उनसे भागवत कथा सुनते हैं. लगातार 12 वर्षों तक कथा वाचन करने के कारण रोमहर्षण जी भी ऋषि की उपाधि से विभूषित हुए.
इन्हीं सूत जी के पुत्र थे उग्रश्रवा जी. उग्रश्रवा जी भी कथा वाचक थे और पिता की ही तरह सभी 18 पुराणों के ज्ञाता थे. उनके गुरु भी महर्षि वेद व्यास थे. महाभारत की कथा को उग्रश्रवा जी ने ही सुनाया था, जिसे हम आज भी ग्रंथ के रूप में पढ़ते हैं. यह उनकी ही सुनाई कथा है जो आज हमारे सामने है.
महर्षि वेदव्यास के जन्म की कथा भी है विचित्र
खुद महर्षि वेदव्यास की बात करें तो उनका भी जन्म इसी तरह वर्ण संकर जाति में ही हुआ था. वशिष्ठ ऋषि के पुत्र हुए शक्ति और शक्ति के पुत्र हुए ऋषि पाराशर. ऋषि पाराशर का समय काल द्वापर युग का ही था. उधर, इसी युग में एक राजा हुए उपरिचर. राजा इतने सामर्थ्यवान थे कि इंद्र भी उनके मित्र हो गए थे. राजा ने कई वर्षों का ब्रह्मचर्य व्रत लेकर तपस्या की थी, लेकिन इंद्र उनकी तपस्या पूरी होने से पहले ही उन्हें समझाया और कहा तप का मार्ग छोड़कर इस पूरी भूमि के स्वामी बनो. राजा ने उनकी बात मान ली और अपने राज्य लौटने लगे. रास्ते में वह एक जगह विश्राम के लिए रुके तो यमुना का सुंदर तट और सुंदर फूलों वाले वन को देखकर वह कामातुर हो गए. इसी दौरान उनका वीर्यपात हो गया. वह वीर्य यमुना के जल में गिरा तो उसे एक मछली ने निगल लिया.
वह मछली असल में एक अप्सरा थी, जिसका नाम आद्रिका था. उस मछली को मछुआरों ने पकड़ा और काटा तो उसके गर्भ से एक कन्या का जन्म हुआ. मछली की गंध के कारण उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया. एक दिन ऋषि पाराशर ने उसे देखा. वह मत्स्यगंधा की नाव पर बैठ कर नदी पार कर रहे थे. पाराशर मुनि उसके रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, “देवि! मैं तुमसे पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूं.” सत्यवती ने कहा, “मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या. हमारा संबंध संभव नहीं है. पाराशर मुनि बोले- तुम चिन्ता मत करो. तुम कुमारी ही रहोगी और फिर तुम्हारी गंध सुगंध में बदल जाएगी.”
तुम्हारा यह सत्य जानकर भी संसार में तुम्हें कोई कलंक नहीं लगेगा. इस तरह मत्स्यगंधा सत्यवती कहलायी और पाराशर ऋषि के पुत्र कृष्ण द्वैपायन की माता बनी. यही कृष्ण द्वैपायन आगे चलकर वेद व्यास बने, जिन्होंने महाभारत समेत, कई पुराणों को रचना की. भाष्य और टीका ग्रंथों का संकलन किया और साथ ही वेदों को भी अलग-अलग विभाजित किया. कथा सुनाने वाली गद्दी को उन्हीं के सम्मान में व्यास पीठ या व्यास गद्दी भी कहते हैं.
रोमहर्षण सूत जी, उग्रश्रवा ऋषि और खुद महर्षि व्यास की कथा से तो ये स्पष्ट है कि कथा कहने-सुनने और सुनाने में जाति बंधन जैसी कोई बाधा नहीं है. महर्षि वाल्मीकि की कथा भी कई जगह आती है, जहां उन्हें रत्नाकर बताया जाता है और उनके भी जन्म से ब्राह्मण होने के संबंध में कई मतभेद हैं.
महाभारत में दर्ज है ज्ञानी व्याध की कथा
महाभारत में ही एक कथा आती है व्याध की. यानी एक शिकारी की. वह व्याध इतना ज्ञानी था कि उसने एक ब्राह्मण को कर्म का उपदेश दिया था. वैसा ही कर्म का उपदेश जैसा श्रीकृष्ण ने युद्धभूमि में अर्जुन को दिया था. व्याध के द्वारा दिए गए कर्म के इस ज्ञान को व्याध गीता के नाम से जाना जाता है. कृष्ण भी अर्जुन को इसी सत्य को और विस्तार से बताते हैं. यह महाभारत का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है और ज्ञान का प्रतीक है, वन पर्व में शामिल है. कहने का तात्पर्य यह है कि सनातन परंपरा में ज्ञानी होना, कथा कहना, भगवत भजन करने के लिए जाति कहीं आड़े नहीं आती है और भारतीय लिखित इतिहास में तो कहीं भी नहीं आई.
शबरी की कथा से कौन अनजान है. वह वनवासी आदिवाली भीलनी जाति की स्त्री थी, लेकिन महान ऋषि मतंग मुनि की शिष्या थीं. ऋषि ने उन्हें सारे वेदों के ज्ञान का एक सार ‘श्रीराम’ नाम का तत्व दिया था. शबरी सिर्फ नाम जप करती थीं और श्रीराम के भजनों का सत्संग करती थीं. उन्हें कभी किसी का विरोध नहीं झेलना पड़ा और खुद श्रीराम एक दिन उनकी कुटिया में पधारे.
दैत्य हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद को भी भक्त शिरोमणि कहा जाता है, दैत्य कुल में जन्म लेने के बाद भी प्रह्लाद भक्त हृदय था और ईश्वर सत्संग उसकी खूबी थी. उसका कर्म था. इसी बात पर तो उसका अपने पिता से विरोध था और जब यह विरोध हद से आगे बढ़कर जानलेवा तो उसकी रक्षा के लिए खुद भगवान आए थे.
फिर इटावा तो खुद ब्रज क्षेत्र में आता है. वही ब्रजभूमि जहां श्रीकृष्ण के सभी बाल सखा, यादव गोप ही थे. उन्होंने उनके साथ खेल-कूद किया, कई लीलाएं रचीं, खुद उनकी कथा में शामिल रहे हैं तो ऐसे में भी इटावा वाली घटना अगर सच है तो सिर्फ शर्म
नाक है. यह सनातन का भी अपमान है.