मुख्य समस्या को सुलझाये बिना,गौण समस्या को सुलझाने की कोशिश करना व्यर्थ है।”

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“मुख्य समस्या को सुलझाये बिना,गौण समस्या को सुलझाने की कोशिश करना व्यर्थ है।”
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जैसे किसीके पैरों में तकलीफ हो, घुटनों की समस्या हो या और कोई कष्ट पर इसकी तरफ ध्यान न देकर दौड प्रतियोगिता में प्रथम आना चाहता हो,सभीको पीछे छोड देना चाहता हो।उसकी महत्वाकांक्षा से उत्पन्न समस्या ही प्रमुख हो तो उससे कहा जायेगा -पहले अपने पैरों को ठीक करो, उन्हें मजबूत करो, अपनी इच्छा शक्ति बढाओ आदि।
इसी तरह शत्रु का आक्रमण हो और कोई जोश में होश खो बैठकर हथियार लेकर पहुंच जाय तो उसे कहना पड़ता है पहले कुशल सैनिक का प्रशिक्षण प्राप्त करो।
यह संसार भी रणभूमि है।जैसा भी है कोई बात नहीं,उपद्रव हम तभी खड़ा करते हैं जब हम गौण समस्या को मुख्य समस्या मान लेते हैं तथा मुख्य समस्या को गौण मान लेते हैं बल्कि मुख्य समस्या को तो समस्या मानते ही नहीं। ध्यान है ही नहीं उधर।
कारण?
अहंकार आगे खडा है आत्मा के,स्वयं के(सेल्फ के)।
इसके कारण हम बाहरी जगत से जुड़े रहते हैं (जो अपना ही प्रक्षेपण है),इसके कारण हम स्वयं से नहीं जुडते। यही मुख्य समस्या है। संसार की समस्याएं गौण समस्याएं हैं। उन्हें भी सुलझाना तो होता है, उन्हें भी ऐसे ही तो नहीं छोडा जा सकता।
परंतु गलती यही होती है कि हम स्वयं से जुडे बिना अर्थात् स्वयं से टूटे रहकर,उन पर निर्भर होकर,उनके अधीन होकर उन्हें सुलझाना चाहते हैं।
हम यह नहीं देखते कि मुख्य समस्या को सुलझाने लेने से गौण समस्याओं को सुलझाने में बड़ी आसानी रहती है।
महर्षि कहते हैं -पहले पता लगा लो तुम कौन हो?
“Solve that great problem and you will solve all other problems.”
मैं कौन हूं प्रश्न का बौद्धिक उत्तर मिल सकता है। उससे कुछ नही होता। मन-बुद्धि में मैं कुछ हूं यह मान्यता दृढ है इसका मोह छोडकर हृदय में स्वयं को अनुभव करना पड़ता है,स्वयं से जुडना पड़ता है।
यह स्वस्थता है। इसीलिए बल है।
चूंकि सच्चिदानंद परमात्मा सब जगह है इसलिए जहां हम हैं ठीक वहीं वह है और उसीके कारण हमें अपने अस्तित्व का अनुभव हो रहा है।
हम अपनी जगह रुक जायें तो अपने आप परमात्मा से जुड जाते है।
हम अपने आपमें ठहरे बलवान योगियों को देखकर ईर्ष्या कर सकते हैं, लेकिन हम खुद यह कोशिश नहीं करते। प्रयत्न करें तो यह बहुत आसान है। यही कि सामने चाहे जैसा भी दृश्य हो सुखद या असुखद हम पीछे अपने अस्तित्व बोध से जुडे रहें,
टूटें नहीं।
असहिष्णुता बहुत ज्यादा है तो यह मुश्किल है। फिर अपनी जगह डटे रहना,स्वयं को अनुभव करते रहना आसान नहीं।
दुख कष्ट तो शायद सह भी लें,सुख में कमजोर पड़ जाते हैं।
“दुख आ जाये तो हम कहते हैं -चला जायेगा; कोई ज्यादा देर थोडे ही रुकने वाला है। संसार में सब चीजें अनित्य हैं।
जब सुख आता है,तब कहिये अपने से-चला जायेगा, कोई घबडाने की जरूरत नहीं है। संसार में सब चीजें अनित्य हैं।
जब घर में कोई मर जाए तो हम कहते हैं -आत्मा अमर है, मृत्यु तो सब भासमान है।
जब घर में बच्चा पैदा हो जाए,तब कहिये-आत्मा तो अमर है,जन्म वगैरह सब भासमान हैं, कुछ भी नहीं हुआ।”
सांसारिक सुख में हम शांत,विश्रामपूर्ण रहें तो स्वयं से जुड़ने की साधना में सफलता हासिल हो सकती है।हम तो भागते हैं और हर हाल में सुखद को बनाये रखना चाहते है।
होना यही चाहिये कि जो भी हो सुखद,असुखद हम अपने को छोड़ें नहीं,पीछे जुडे रहें स्वयं से जहां परमात्मा हर वक्त मौजूद है।
वही स्रोत है।
स्वयं से जुड जाना उसी मूलस्रोत से जुड जाना है।
यह योगी हो जाना है।
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं -पहले तू योगी हो जा।’
हम योगी नहीं हैं,हम पीछे खुद अपने आपसे दृढ़ता से जुडे हुए नहीं हैं। यही मुख्य समस्या है।
इसे न सुलझाकर हम गौण समस्याओं को सुलझाने में अपना समय, शक्ति बर्बाद कर रहे हैं।
जैसे धन का अभाव है। हमें रुपया चाहिए।हम इसे मुख्य समस्या मान सकते हैं जैसा कि चलन है।
हकीकत में यह मुख्य समस्या है ही नहीं,गौण समस्या है।
मुख्य समस्या यह है कि हम पीछे स्वयं से जुडे हुए नहीं हैं।हम पीछे मुड़कर स्वयं से जुड़ने की कोशिश नहीं कर रहे।
फिर ठहराव कैसे आयेगा?
ठहराव नहीं है तो सूक्ष्म समझ शक्ति कैसे काम करेगी?
जब सूक्ष्म समझ शक्ति अपना कार्य करती है,गौण समस्याओं को हल करने में बड़ी आसानी होती है।ऐसे लोग अच्छा पैसा कमा लेते हैं, अच्छा व्यवहार कमा लेते हैं।
हमारी यह मुख्य समस्या हो सकती है कि लोगों में प्रेम नहीं है जैसी कि कई लोगों को होती है।
लोगों में प्रेम नहीं -यह गौण समस्या है।
मुख्य समस्या यह है कि हम खुद से टूटे हुए हैं, पर निर्भर हैं, पराधीन हैं।
हम खुद से जुडे रहकर बिना लाचारी महसूस किये सभी से स्वस्थ, प्रेमपूर्ण, सद्भाव पूर्ण व्यवहार करेंगे तो लोग मूर्ख नहीं हैं,वे समझते हैं इसलिए उत्तम व्यवहार को महसूस करके वे भी सकारात्मक होंगे।
हमारे हाथ में है उन्हें प्रेमरहित से प्रेमपूर्ण बनाना।
अतः पहले अपनी मुख्य समस्या को सुलझाना जरूरी है।
हम जो आगे आगे भागते रहते हैं वह भागना बंद करें और पीछे लौटें तथा अस्तित्व बोध से जुड़ें।
इसमें स्वतंत्रता है।
स्वतंत्रता में प्रेम है।
परतंत्रता में तो मोह है,अपेक्षा है, स्वार्थ है इसलिए राग-द्वेष हैं।
कृष्ण ने यही तो कहा हैं -पहले हृदयस्थ ईश्वर की शरण में जाओ।’
ये दो विकल्प हो गये,चुनाव हो गये।
एक तो यह कि हम अपने को पीछे छोड दें,और संसार को पाने आगे दौड जायें।
दूसरा यह कि पहले हम अपनी जगह थामे रहें, अपनी जगह नहीं छोड़े फिर जो भी गौण समस्याएं सुलझायें।
उनसे कतराने की जरूरत नहीं।
हम स्वयं से कतराते हैं इसी कारण से गौण समस्या, मुख्य समस्या जैसी प्रतीत होने लगती है।
अपने में अपार धैर्य विकसित होने पर गौण समस्याएं अपने आप सुलझ जाती हैं।
नहीं सुलझें तब भी हम मौजूद हैं वहां।
कल मैं एक मित्र से बात कर रहा था। मित्र बुद्धिमान है।
उसने कहा-
‘हम ही नहीं हैं तो समस्या सुलझायेगा कौन?’
हम तब होते हैं जब हम पीछे अपने आपसे जुडे हुए रहते हैं।
हम गये हुए हैं, पराधीन,परनिर्भर हैं तो हम हैं ही कहां?
आत्मस्थिति हो,आत्मबल हो, आत्मविश्वास हो, स्वस्थता हो,स्वयं से गहराई से जुडे होने का अनुभव हो तो बडी रचनात्मक, बड़ी सकारात्मक स्थिति होती है।
तभी हम होते हैं वहां, समस्या सुलझाने के लिए।
शेर भी पहले ठहरता है पीछे की ओर फिर आक्रमण करता है।
हम तो ठहरना ही नहीं चाहते। असहिष्णुता बहुत अधिक है।
हर वक्त आपे से बाहर।आपे में रहने के लिए जो करना चाहिए वह करते नहीं।किसी ने कुछ कह दिया,कुछ शत्रुता कर दी और हम एकदम आक्रामक हो गये।
ऐसा नहीं कि हम कुछ न करें वह अंतिम है लेकिन हम पहले ठहरें तो सही।
कृष्ण ने भी पहले दुर्योधन को समझाया ही था,वह जब न माना तब युद्ध हुआ।
युद्ध में भी कृष्ण अर्जुन को योगी होने की सलाह ही दे रहे थे।
योगी होने का मतलब पीछे अपने आपसे जुडना है,स्व से,स्रोत से योग करना है।
ऐसी स्वस्थता में चित्त में जय पराजय, शत्रु मित्र का द्वंद्व नहीं रहता,केवल प्रस्तुत कर्म होता है।
फिर एक की जगह दो योगी हो गये,नर नारायण इकट्ठे हो गये।
सुपरिणाम तो सुनिश्चित ही है।
“यत्र योगेश्वर:कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।”
सूत्र है: आत्मयोग।
पहले इस मुख्य समस्या को सुलझाये बिना,गौण समस्या को सुलझाने की कोशिश करना व्यर्थ भी है तथा बुद्धि शून्य भी।
स्वयं से पूछते रहें-
पहले क्या जरुरी है?
और जो जरूरी है उसमें प्रवृत्त हो जायें। संसार को पाने से पहले स्वयं को पायें। संसार न मिला तब भी कोई हानि नहीं है लेकिन स्वयं न मिला तो बड़ी हानि है।
स्वयं के बल पर क्या नहीं हो सकता!स्वयं कभी अकेला नहीं,आत्मबल और गहरी समझ उसके स्थायी सहयोगी हैं।

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