मामूली ‘रामबोला’ से जगत्प्रसिद्ध भक्तिमार्गी गोस्वामी तुलसीदास जी :

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मामूली ‘रामबोला’ से जगत्प्रसिद्ध भक्तिमार्गी गोस्वामी तुलसीदास जी :
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सावन शुक्ल सप्तमी में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजपुर गांव में जनैक सरयूपारीय ब्राह्मण आत्माराम जी दुबे की धर्मपत्नी श्रीमती हुलसी देवी जी की कोख से गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म हुआ था। भूमिष्ट होने के बाद रोने के बदले ‘राम’-‘राम’ बोलने से उनका शैशव नाम “रामबोला” रखा गया था। उनका जन्म अभुक्त गन्ड मुल ‘मूला’ नक्षत्र में होने के कारण, सायद इनके पिता और माता ने जब दुर्भाग्य वशः एक के बाद एक चल बसे, तब हुलसी देवी की प्यारी सखी चुनियाँ ने धात्री माँ बनकर उस रामबोला को पांच साल तक लालन- पालन की थी। किन्तु सहसा चुनियाँ की मृत्यु हो जाने का कारण रामबोला ने अनाथ बन गया था।।

तब अनाथ बच्चे रामबोला की रखरखाव करने वाला और कोई शेष नहीं रहा था। ऐसी संकटजनक स्थिति में भगवान शिव शंकर की प्रेरणा से वंहा के जनैक ब्राह्मण नरहरि नंद जी ने बच्चे को अपने पास ले आए और गोद में लेते हुए यथाविध पालन- पोषण करने लगे।।

तुलसी दास जी के शैशव की विस्तृत विवरण तो उपलब्ध नहीं है; मगर कुछ शोधकारों के अनुसार संवत 1561 की माघ शुक्ल पंचमी को धर्म- पिता नरहरि नन्द जी ने रामबोला का सनातनी आर्य कुलोचित विद्यारम्भ संस्कार के लिए यथाविधि वैदिक रीति में यज्ञोपवीत दिलवा था। फिर आगे भी अयोध्या तथा शुक्रर क्षेत्र को जाने में रामबोला का मदद किया था। अत्यंत प्रखर बुद्धि का होने के कारण, अल्पायु में ही रामबोला ने गुरुकुल में संस्कृत भाषा शिक्षा कर लिया था। जब गुरु जी को उसने लोकभाषा में रामचरित मानस को सुनाया, तब गुरुदेव जी ने अत्यंत प्रीत होकर उनका नाम “रामबोला” से बदल कर, नवीन रूप में “तुलसी दास” रख लिया था। और फिर सारस्वत गादी पर उनके मुख से रामकथा का स्रोत छूटने लगी, तो लोक- समूह में उन्हें “गोस्वामी तुलसी दास जी” नाम से सर्व मान्यता प्राप्त हुआ था।।

गुरुकुल से शिक्षा समाप्ति के बाद गोस्वामी जी ने वंहा से ‘काशी’ चले गए और वंहा गुरुदेव के देखरेख में 15 वर्ष तक निरंतर वेदों का अध्ययन करने के बाद, उनसे आज्ञा लेकर अपने गांव राजापुर लौट आये। फिर गांव से ही उनका रामकथा क्रमशः आसपास के इलाके में लोकप्रिय हो गया था। जब जनैक पण्डित दीनबंधु पाठक जी ने रामकथा सुने, तो उनको दामाद बनाने के लिए इच्छा प्रकट किया। फलतः उनके सुंदरी सुशीला पुत्री “रत्नावली” से गोस्वामी जी का वैदिक रीति में विबाह हुआ था।।

गोस्वामी तुलसी जी अपनी स्त्री पर अत्यंत आसक्त थे। कुछ दिन बाद एक बार पत्नीश्री रत्नावली ने गोस्वामी जी को घर में अकेला छोड़कर, ब्राह्मण कुलोचित कुछ रीतिरिवाज पालन के लिए अपने पिताजी के साथ मायके चली गई तो, गोस्वामी जी भी मोह वशः उछलते हुए यमुना को तैर कर पार् होकर पत्नी के पास जा पहुंचे। उस समय का चलित रीति- रिवाज के अनुसार इस तरह श्वसुरालय में बिनबुलाये एक दामाद का सहसा उपस्थिति अत्यंत लज्जाजनक माना जाता था। अतः स्थिति को ना पसंद करती हुई संस्कारी पत्नी ने उनको भर्त्सना करके कहा था कि–

“लाज ना आवत आपको
दौरे आयहु साथ,
धिक धिक एसे प्रेम को
कहा कहू मे नाथ।।
अस्थि चर्ममय देह मम
तामे एसी प्रीत,
तेसी जो श्रीराम मे होति
न तो भवभित।।”

जब अपनी पत्नी रत्नावली की यह शब्द रूपी तीक्ष्ण तीर जैसी लांछन मर्म में लगी, तब से तुलसी दास जी के जीवन में आमूलचूल परिवर्त्तन आ गया था। परिणामतः उनके दैनंदिन चालचलन व सोच- विचार में भी सम्पूर्ण बदलाव महसूस हुआ था। पत्नी की कड़वा लांछन के प्रभाव से सांसारिक बंधन को त्याग कर, गोस्वामी जी ने राम- भक्ति के मार्ग पर निकल पड़े थे।।

इस प्रकार चलते- चलते गोस्वामी जी ने फिर काशी में पहुंच गए और लोकमेल में रामकथा कहने लगे। ऐसे उनके जीवनचर्या सम्पूर्ण बदल गयी थी और राम- भक्ति में सदा तल्लीन रहकर राम- शरण में ही उच्छर्गीकृत हो गए थे। ऐसे काशी धाम से ही गोस्वामी जी के आध्यात्मिक यात्रा सुरु हुआ और तब से वे अतिंम जीवन तक कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा था।।यह रचना मेरी नहीं है मगर मुझे अच्छी लगी तो आपके साथ शेयर करने का मन हुआ।🙏🏻

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