।। राम ।। रामचरितमानस के उत्तरकांड में गरुड़जी को कागभुसुंडजी बता रहे हैं कलयुग का चरित्र?

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।। राम ।।
रामचरितमानस के उत्तरकांड में गरुड़जी को कागभुसुंडजी बता रहे हैं कलयुग का चरित्र?

श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥

भावार्थ:-वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पंथों की कल्पना करते हैं॥

बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥

भावार्थ:-संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती॥

कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥

भावार्थ:-कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखाई पड़ता॥

ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपुरूप कुटुंब भए तब तें॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥

भावार्थ:-जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुम्बी शत्रु रूप हो गए। राजा लोग पाप परायण हो गए, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही (बिना अपराध) दंड देकर उसकी विडंबना (दुर्दशा) किया करते हैं॥

धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो॥

भावार्थ:-धनी लोग मलिन (नीच जाति के) होने पर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं॥

कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥

भावार्थ:-कवियों के तो झुंड हो गए, पर दुनिया में उदार (कवियों का आश्रयदाता) सुनाई नहीं पड़ता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुःखी होकर मरते हैं॥

सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥

भावार्थ:-हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात्‌ काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गए (छा गए)॥ यह रचना मेरी नहीं है मगर मुझे अच्छी लगी तो आपके साथ शेयर करने का मन हुआ।🙏🏻

।। हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे।।
जय हो!!!! जय सिया राम 🚩🚩🚩🚩

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