हम प्रभु के स्तवन, उपासना, प्रार्थना से अपने जीवन- पथ को प्रशस्त बनायें और फिर देवत्व के गुणों को धारण करके देव बने!

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ओम‌्

हम प्रभु के स्तवन, उपासना, प्रार्थना से अपने जीवन- पथ को प्रशस्त बनायें और फिर देवत्व के गुणों को धारण करके देव बने!

ओम‌् प्र सम्राजं चर्षणीनामिन्द्रं स्तोता नव्यं गीर्भि:।नरं नृषाहं महिष्ठम् ।।

शब्दार्थ प्रस्तोता- खूब स्तुति करो! किसकी? चर्षणीनां सम्राजम्* कृषि तुल्य उद्योग करनेवाले पुरुषों को दीप्त करने वाले की! २- इन्द्र परमैश्वर्यवाले की गीर्भि:नव्यम् सब वेद वाणियों से स्तुति किये जाने वाले प्रभु की ४- नरम् आगे ले जाने वाले प्रभु की
५- नृषाहम् उन्नतिशील पुरुषों पर कृपा दृष्टि रखने वाले की! ६- महिष्ठम् सर्वाधिक दानशील की

व्याख्या प्रभु अपनी वेद वाणी में जीव को उपदेश देते हैं कि अक्षैर्मा दीव्य: कृषिमित् जुआ मत खेल, खेती कर! श्रमशील व्यक्ति ही प्रभु को प्रिय होतें है!
२- श्रमशीलता होने पर हम उस ज्ञान स्वरुप परमैश्वर्य को भी पाते हैं! जो हमें प्राकृतिक भोग- पंक में फंसने से बचा कर प्रभु का सच्चा उपासक बनाता है!
३-इस ज्ञान का यह परिणाम होता है कि हम वेद वाणियों से प्रभु महिमा का गुणगान करते हैं! सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति सब वेद उस प्रभु महिमा का ही गायन कर रहे हैं!
४- वह प्रभु हमें नरम् आगे ले चलता है! हमारे उत्थान का कारण बनता है! इससे हम अपने अंदर दैवी सम्पत्ति को बढाने वाले बनते है!
५- इस दैवी सम्पत्ति के द्वारा हम अन्य मनुष्यों पर दया दृष्टि वाले बनते हैं!
६- इसी दैवी सम्पत्ति का दूसरा परिणाम यह है कि हम *महिष्ठ* बनते हैं! देवों दानात् देव होते ही देने वाले है! यह स्तोता उस महान दाता प्रभु का स्मरण करके देने वाला बनता है और देव हो जाता है!
यह स्तोता इरिम्बिठि था इसका ह्रदयान्तरिक्ष‌ सदा गतिशील था! उसमें निरंतर प्रभु स्मरण की धारा बह रही है! इसी सतत् प्रभु स्मरण ने उसे शनैः शनैः करके उसे जीवन मार्ग में उन्नत किया था, अतः कण कण करके दिव्य गुणों का भण्डार बनने के कारण यह इरिम्बिठि काण्व कहलाया! मन्त्र का भाव है कि- हम प्रभु की स्तुति कर अपने जीवन पथ को प्रशस्त करके देव बन जाये !

हम अपनी चित्त वृत्तियों को सदैव प्रभु को अर्पित करें!
प्रभु बछड़ा हो और मै गौ होऊं!

ओम‌् इमा उ त्वा पुरूवसोऽभि प्र नोनुवुर्गिर: । गावो वत्सं न देने ।।
साम० १४६! २

शब्दार्थ हे पुरुवसो! पालक और पूरक निवास देने वाले प्रभु! इमा ये गिर: मेरी वासियों उ निश्चय से त्वा आपको ही अभिप्रनोनुवु: लक्ष्य बनाकर निरन्तर स्तुति करने वाली हों! न जैसे कि देना:गाव: नव प्रसूतिका गौएँ वत्सम् बछड़े का ध्यान करने वाली होती है!

व्याख्या प्रभु सभी को वास के उचित साधन प्राप्त कराते हैं! वे साधन उसका पालन और पूरण करने वाले होते हैं! कुछ तो ज्ञान के अभाव के कारण और कुछ मन को पूर्ण वश में न कर सकने के कारण हम उन पदार्थों को ठीक प्रयोग नहीं करते और परिणामतः हमारे उचित विकास में कुछ कमी आ जाती है! प्रभु पुरुवसो है, मै सदा उस प्रभु का स्तवन करूँ, जिससे हमारा अज्ञानांधकार दूर हो तथा मैं अपनी चित्तवृत्तियों को वश में कर सकूँ और इस प्रकार प्रभु से दिये गये उन पदार्थों का ठीक उपयोग करके उत्तम निवास वाला बनूँ! मेरा चित्त सदा उस प्रभु के लिए उसी प्रकार उत्कण्ठित रहे जिस प्रकार गौ बछड़े के लिए उत्सुक होती है! मेरी चित्त रुप नवसूतिका गौ के लिए प्रभु बछड़े के समान हो! ध्यान इधर उधर न करती हुई गौ जैसे बछड़े की ओर ही चली जाती है, उसी प्रकार मेरा मन इधर उधर विषयों में भ्रान्त न होकर प्रभु की ओर ही लगा रहे!
चित्त को प्रभु में लगाने से बढकर बुद्धिमत्ता कुछ और है भी नहीं! यह ठीक है कि यह सब कुछ एक रात में होने वाला नहीं है! धीरे धीरे अभ्यास से ही मन प्रभु में लगेगा! कण कण करके हमें इस मार्ग पर आगे बढ़ना होगा! इस प्रकार थोड़ा थोड़ा कण कण करके आगे बढने वाला कण्वपुत्र – काण्व  इस मन्त्र का ऋषि है! यह सचमुच मेधाम् अतति ज्ञान प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ रहा है, अत: मेधातिथि है! मन्त्र का भाव है कि हम अपनी वृत्तियों को प्रभु अर्पित करके अपने को प्रभु का सानिध्य प्राप्त कर सकें!                                                       यह रचना मेरी नहीं है मगर मुझे अच्छी लगी तो आपके साथ शेयर करने का मन हुआ।🙏🏻

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