पाँचों कर्मेन्द्रियों,और पाँचों ज्ञानेन्द्रियों सहित चारों अन्त:करणों में काम का निवास है!

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पाँचों कर्मेन्द्रियों,और पाँचों ज्ञानेन्द्रियों सहित चारों अन्त:करणों में काम का निवास है!

क्रोध व लोभ इसी काम की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के कारण उत्पन्न होते हैं!इनका स्थाई निवास कहीं है नहीं!क्योंकि वे दोनों काम के विकृत रुप हैं!जो कामनाओं की पूर्ति या अपूर्ति के फलस्वरुप प्रकट होते हैं!

यही दशों ईन्द्रियाँ व चारों अन्त:करण चौदह भुवन हैं,जो मायिक हैं!और जिनके सुख भोगों में रत जीव, अनंत जन्म लेकर भी, इनकी वासना से मुक्त नहीं हो पाता है!

इसलिए इन चौदहों मायिक भुवनों से परे अपने वास्तविक भुवन, परमधाम, परम विराट पुरुष,परब्रह्म परमात्मा का ज्ञान आवश्यक होता है!

क्योंकि बिना अपने आत्मस्वरुप के ज्ञान के,इन मायिक भुवनों की सत्यता पर अविश्वास करना,देहाभिमानी सामान्य मनुष्य के लिए, कठिन ही नहीं, वरन असम्भव कार्य है!!

पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में सर्वप्रथम आखों से कामुक दृष्य देखने से,कर्णों से कामुक शब्द सुनने से,नासिका से कामुक सुगन्ध ग्रहण करने से,जिह्वा से कामुक रस लेने से,और चर्म से कामुक स्पर्श करने से,काम जागता है!

और दोनों हाथ,दोनों पैर,लिंग,गुदा,और मुख सभी कर्मेन्द्रियाँ काम के वश में होकर, कामुक कर्म में लग जाती हैं!

ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अपने अपने विषय सुख में लगने से, कर्मेन्द्रियों द्वारा कामुक कर्म करने से, मन काम के वश में हो जाता है और अत्यन्त कामुक हो जाता है!

मन के कामुक होने से, बुद्धी व विवेक सुषुप्त पड़ जाते हैं,जिससे चित्त में विकारभाव आ जाता है,और अहँकार भोक्तापन के आनन्दाहम् से बन्ध जाता है!

और इन सभी को अपना स्वरुप मानने के कारण आत्मा अर्थात हमसब स्वयं को ही कामुक मानकर कामी के समान हो जाते हैं,अर्थात कामनावान मनुष्य होने के भ्रम से, पूर्णत: भ्रमित हो जाते हैं!

जबकि मूलत: काम हमें स्पर्श भी नहीं कर सकता!क्योंकि हम काम से भी अत्यन्त परे हैं!पर देहाभिमान के भ्रम से भ्रमित होने पर

यह भ्रम अनंत जन्मों तक बना रहता है,जबतक के कोई सदगुरु या आत्मगुरु स्वयं हमारी बुद्धी में, विवेक रुप से प्रकट होकर, हमारे चित्त को शुद्ध करके, हमें जागृत नहीं कर देते हैं!

और दिव्यदृष्टि प्रदान करके हमें, यह स्पष्ट दिखा नहीं देते के मूलत: तत्वत: हम हैं कौन!तबतक हम स्वयं को देह, मन,बुद्धी,चित्त,अहँकार सत् रज् और तम गुण आदि
मानकर,

इन्हीं सबके रचे हुए मायिक रुपों को अपना मूल स्वरुप मानकर, एक मिथ्या, स्वप्नवत, कीडे़ मकोडों,पशु पक्षियों,वृक्षों गुल्मों,लताओं पत्ताओं वाला,नारकीय जीवन जीते रहते हैं!

इसलिए इन चौदहों भुवनों में स्थित जितने भी विषय भोग हैं,वे सभी मिथ्या हैं,असार हैं,यह जानकर,मन को बुद्धी के द्वारा यह विश्वास दिलाना चाहिए!

जिससे शनै: शनै: मन विकारों से मुक्त होकर,निर्विकार होगा,और जिसदिन मन निर्विकार हो जायेगा,वह ज्ञानेन्द्रियों को उनके विषयों में आसक्त होने से संयमित करेगा!

और ज्ञानेन्द्रियों के नियमन से कर्मेन्द्रियाँ नियमित हो जायेंगी,और कर्मेन्द्रियों के नियमित हो जाने से शरीर स्वत: ही नियंत्रण में आ जायेगा!

और जिसका शरीर नियंत्रण में आ जायेगा,उसकी समाधी लगने की सम्भावना बढ़ जाती है,और समाधिस्त जीव की चित्त वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं!

जिससे अहँकार का बीज भी भुनकर,जलकर नष्ट हो जाता है!और जिसका अहँकार बीज नष्ट हो जाता है!

उसका पुन: जन्म नहीं होता,क्योंकि अहँकारभाव के कारण ही आकार और उसके अहम् से बन्धना पड़ता है!

पर जो यह तत्व जान लेता है के मैं निर्गुण निर्विकार निरअवयव निराकार सर्वव्यापी परब्रह्म ही हुँ वह कभी भी अहँकार के वश में नहीं होता है,उसका पतन नहीं होता है!

क्योंकि आत्मन् ही परमात्मन् है,जीव ही ब्रह्म है,और जिसका विनाश करने में कोई भी मायिक शक्ति व सत्ता सक्षम नहीं है!!                                                       यह रचना मेरी नहीं है मगर मुझे अच्छी लगी तो आपके साथ शेयर करने का मन हुआ।🙏🏻

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