भगवान् ने गीता में शरणागति को सबसे श्रेष्ठ बताया है

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भगवान् ने गीता में शरणागति को सबसे श्रेष्ठ बताया है

उन्नाव।

भगवान् ने गीता में शरणागति को सबसे श्रेष्ठ बताया है । सर्व गुह्यतम कहा है । नवें अध्याय में कहा है – मेरे में मन वाला हो जा । फिर दसवें में पहले कहा मेरे में चित्त वाला हो जा, फिर कहा मेरे में मन वाला हो जा । अंत में अठारहवें अध्याय में कहा मेरे में मन वाला हो जा । जीव मात्र में सहारे का स्वभाव स्वत: है । पशु, पक्षी, पहाड़ सब में है । लता, बेल भी हैं, गाड़ी चलने में सहारा लेती हैं । मनुष्य में भी सहारा लेने का स्वभाव है । स्त्री मात्र में तो सहारा लेने का स्वभाव है ही ।
यह बात ग्राम निबिहन खेड़ा में संगीतमयी श्रीमद भागवत कथा की ब्याख्या के दौरान भुनेश्वरी देबी शक्ति पीठ के महंत आचार्य नीरज स्वरूप ब्रम्हचारी ने भक्तो को बताते हुए कहा कि स्त्री को पति का सहारा है, पिता का पुत्र का सहारा लेता हैं ।पुरुष भी धन, संपत्ति का सहारा लेते हैं । सहारा लेने का स्वभाव स्वत: है । तो नाशवान का सहारा न लेकर परमात्मा का सहारा लें । साधन करने के लिए शरीर का सहारा लेता है । (जबकि) मानो साधन करण निरपेक्ष है । चिंतन, समाधि करते हैं, यह भी जड़ का सहारा है । ध्येय परमात्मा का होने पर भी सहारा जड़ का लेता है । जड़के द्वारा चेतन की प्राप्ति नहीं होती । जड़ के त्याग से चेतन की प्राप्ति होती है । भगवान् के नाम जप है, यह क्रिया नहीं है, यह उपासना है । कर्म करना है – यह क्रिया है । और यह भी भगवान् के अर्पण किया जाए तो क्रिया नहीं रहती, उपासना हो जाती है । रुपयों के सहारा लेने से रुपयों की परतंत्रता हो गई । हमारे मकान हो जाए तो यह मकान की पराधीनता हो गई । कहते हुए शर्म आती है की बुद्धि भ्रष्ट हो गई । इससे आगे रुपयों की गिनती में लग गए । संख्या में लग गए । धन से बड़ा मान लिया, तो धन बड़ा हुआ कि स्वयं बड़ा हुआ । रुपयों के कारण बड़ा मानता है तो ये फजीहति होगी । रुपयों के कारण बड़ी पार्टी बनता है, तो खुद की तो फजीहति ही हुई । तो यह सहारा परमात्मा का हो जाए तो निहाल हो जाए ।
उन्होनें कहा कि अपने स्वरूप का सहारा ज्ञान का सहारा है । इससे ऊंचा परमात्मा का सहारा है । ज्ञान से भक्ति ऊंची है । जीव परमात्मा का अंश है, तो परमात्मा का सहारा लेना चाहिए । तो यह सबसे ऊंची चीज है । सबसे श्रेष्ठ है, भगवान् का सहारा । न माया जीव में है, न माया ईश्वर में है । पर माया के वश में हो गया । ईश्वर मायामय नहीं है, वह माया पति है । उपनिषदों में भी आया है । तो परमात्मा का सहारा है, वह सर्वोपरि है ।उनका कहना था कि परमात्मा का सहारा लिया जाए तो बहुत जल्दी उन्नति होती है, संतोषजनक उन्नति होती है ।
मामेकं शरणम् व्रज ।
नाम लेता है, तो नाम का सहारा भी अच्छा है । पर असली सहारा भगवान् का है । इससे भगवान् का प्रेम होता है । भगवान् प्रेम देते हैं । भगवान् ने कहा है – मेरे भक्तों को मैं बुद्धि योग देता हूं । भगवान् के चरणों के शरण होने पर भगवान् ज्ञान कराते हैं । गुरु के चरणों के शरण होता है, तो वह तो पहले अज्ञान में था, बाद में ज्ञान हुआ है । परंतु भगवान् तो पहले से ही ज्ञान स्वरूप हैं । तो परमात्मा की शरण होना विशेष है ।भगवान् ने कहा है – तू मेरी शरण में आ जा। एक आसरो एक बल एक आस विश्वास ।जानकी पति से सहारे की याचना करो । फिर अन्य जगह मांगने की जरूरत नहीं है । अपने आप को भगवान् के समर्पित कर देना । भक्ति में भगवान् का अंश माना है । तो अपने आप को उनके अर्पण कर दे । भगवान् के आश्रय वाले ब्रह्म को जान जाते हैं । जरा मरण से मुक्ति के लिए मेरे चरणों का आश्रय ले ले । ऐसे भगवान् के चरणों के शरण हो जाए । भगवान् ने तो शरण में पहले ही ले रखा है । जो भगवान को नहीं मानते उनका भी भगवान् पालन पोषण करते हैं । भगवान् बिना हेतु के कृपा करने वाले हैं । अर्जुन भगवान् के साथ रहते थे, सोते थे, उठते – बैठते थे । पर शरण नहीं हुए तब तक नहीं बताया ।और जब शरण हुए कि मैं आपकी शरण हूं तो भगवान् ने बताना शुरू कर दिया । भगवान् के शरण होने से भगवान् की सब शक्ति शरणागत में आ जाती है ।उन्होनें कहा कि एक बात और कहता हूं – अन्य का सहारा न ले । भगवान् कहते हैं – मेरे जल्दी नहीं है । जब तू आना चाहे आ जाना पर अन्य का सहारा नहीं लेना है ।

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